हम तो इसी बात से खुश हो जाते है कि चलो 50 साल बाद किसी महिला ने जिमनाष्ट में ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई किया है।दीपिका कर्माकार की कामयाबी के जश्न की अभी दो दिन भी नही बीते की हमे पता चल गया की आखिर क्या वजह है की हमे जश्न के ऐसे मौके नही मिलते ? क्या वो दूरियां है की हमारे खिलाडियों को ओलम्पिक की पदक नही मिलते ? क्रिकेट की चमक दमक के बिच हमारे ओलम्पिक खिलाड़ियों की दुर्दशा देखकर शर्म सी आती है। घर में एक आदमी भी बीमार पर जाय तो पूरी व्यवस्था गड़बड़ हो जाती है लेकिन यहाँ तो पूरी व्यवस्था ही बीमार है। हर कीसी की ख्वाहिस होती है की ओलम्पिक में हमारी झोली पदको से भर जाय लेकिन ये कैसे सम्भव हो जब सरकार से लेकर खेल संघ खिलाडियों से ठगी करने में लगे हो? जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में खिलाडियों की ओलम्पिक की तयारी देखकर लगता है जैसे चक दे इंडिया के जगह ठग दे इंडिया रख देना चाहिए।
जिस खिलाडियों के आँखों में सोने की पदक की सपना हो लेकिन उन्हें सोने को बिस्तर ना मिले। कहाँ से मिलेगा मेडल ? जब मैदान में पसीना बहाने के बाद कमरे के नल में पानी ना हो ? कहाँ से होगा चक दे इंडिया जब मैदान से लौटने के बाद घर में बिजली नही मिलेगी ? घर की AC काम नही कर रहा हो, सोने का विस्तर ना हो फिर गुदरी के लाल से सोने की मेडल की आश करना क्या ईमानदारी है ?
कुछ ही महीने बचे है रियो ओलम्पिक प्रतियोगिता की। खिलाड़ी जी जान से मैदान में पसीना बहा रहे है। मेडल के लिए पसीने से मिट्टी गूँथ रहे है सरकारे उनकी सेवा में बिछी जा रही है और द्रोणाचार्य के देश में उनकी दुर्दशा की टोपी खूँटी पर टाँग रखी है। दिल्ली के जवाहरलाल यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में देश भर के चुनिंदा खिलाड़ी इन दिनों ठहरे हुए है, इस उम्मीद में की ओलम्पिक में तिरँगा लहराएंगे, लेकिन सोने का मेडल लाने बाले के लिए सोने का व्यवस्था नही है। फ़टे हुए विस्तर टूटे हुए पलंग पर सोने बाले ओलम्पिक के खिलाडी से हम सोने की मेडल की उम्मीद करते है। हमारे देश में ओलम्पिक में लगे खिलाड़ियों की ऐसी दुर्दशा और व्यवस्था में रहने को मजबूर किये गए है जिससे एक ही जुमला कह सकते है ठग दे इंडिया।ओलम्पिक से लगे खिलाड़ी दिन भर मैदान में पसीना बहाती है और रात को इसकी व्यवस्था पसीना चूस लेती है लेकिन ये अजायबघर के सजाबत से ज्यादा कुछ नही है। कमरे की दिबारे टूटी हुई है तारे इधर उधर बिखरी नजर आ रही है और शिकायत पर समाधान हो जाय तो काहे का ठग दे इंडीया। दिल्ली के भीषण गर्मी में प्रैक्टिस के बाद कमरे पर पहुचने के बाद पता चलता है की पानी ही नही है, डस्टबिन तक नही है, गन्दगी के अम्बार में रहने को मजबूर है ओलम्पिक में देशभक्ति गुमान का झन्डा लहराने बाला। ये गली मोहल्ले के खिलाड़ी नही रहते है यहाँ देश के लिए खेलने बाले राष्ट्रीय और अन्तर राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी का व्यवस्था है ये। इन्ही से उम्मीद रियो ओलम्पिक में राज करने का लेकिन सचमुच में व्यवस्था देखा जाय तो यह ठग दे इंडिया है।
सबाल है कि इस बिमारी और बदइंतजामी का जिम्मेदार कौन है ? भारतीय ओलम्पिक संघ इस जिम्मेदारी से कैसे बच सकता है ? स्पोर्ट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया इस जिम्मेदारी से कैसे किनारा कर सकती है ? सरकार का खेल महकमा इस जिम्मेदारी से कैसे मुँह मोड़ सकता है ? लेकिन यही सच है कि ओलम्पिक मेडल बाले नारों के बिच खिलाड़ियों के बुनियादी सुविधा मुहैया करबाने का जबाबदेह कोई नही होना चाहता ? हसीन पलो के उन्ही दिनों में आज के प्रधानमंत्री जी ने बोला था की अगर सेना के जवानो को अलग से ट्रेनिंग दी जाय तो 5 - 10 मेडल यूँ ही आ जायेगा लेकिन आज की हकीकत देखिये की मेडल लाने बाले की मजबूरी पर कोई बोलने को तैयार नही है ? ओलम्पिक खिलाड़ियों के नसीब में अच्छे दिन कब आएंगे ये किसी को नही पता ? कोई जिम्मेदार लेने को तैयार नही होता ऐसी सूरतो का ? भारतीय ओलम्पिक संघ के पास इस दुर्दशा का कोई जबाब नही है ? स्पोर्ट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया के पास इसका कोई जबाब नही है ? खेल संघो के पास भी इसका कोई जबाब नही है ? और ना ही भारत के सरकार के पास इसका कोई जबाब है ? कोई नही बताता कि ओलम्पिक खिलाड़ियों के लिए ये मामूली सहूलियत क्यों नही मयस्सर होता ?
किसी देश में ऐसा नही होता कि दुनिया के सबसे बड़े मुकाबले में हिस्सा लेने बाले खिलाड़ियों को इस हाल में रखा जाता ? छोटे छोटे देश भी अपने खिलाड़ियों के लिए कम से कम बुनियादी सुविधा तो जूटा ही लेते है ?लेकिन हमारे खिलाड़ियों को ऐसे तबेले में झोंक दिया जाता है जैसे भारत की नही सोमालिया के खिलाड़ी हो ? तिन चार पदक आ जा रहे है तो इनके जज्बे की आरती उतारिये वर्ना हमारे खिलाड़ी मैदान में बाद में परास्त होते है अपने व्यवस्था से लड़ते लड़ते उनका हौसला पहले ही पस्त हो जाते है।
यही सब वजह है कि हम ओलम्पिक खेलों में कहीं नही ठहरते ? सवा अरब से ज्यादा की उम्मीदे हर बार धराशायी होती जाती है। आखिर क्या वजह है की जिस देश में क्रिकेटर को भगवान की तरह पूजा जाता है वहाँ दूसरे खेल के खिलाड़ी विस्तर, बिजली और पानी तक को मोहताज है। पैसों का खेल हर बार असली खेल पर भारी पड़ता है। नाम शोहरत पैसा इज्जत इफराद से बरसती है क्रिकेटर को, बाकि खेलो का हाल ये है की मामूली सुविधा को तरसते है ये खिलाड़ी। क्रिकेट भी खेल है और फुटबॉल बॉक्सिंग,कार्राटे, हॉकी, टेनिस कुश्ती लेकिन क्रिकेट के अलाबा हर खेल दम तोड़ते नजर आते है। ऐसा नही है की सरकार खेलो पर खर्च नही करती है ? करोड़ों रुपये खर्च होते है लेकिन वैसे ही होते है जैसे दूसरे सरकारी योजनाओ पर। इसी साल खेल की बढ़ाबा देने और खिलाड़ियों को तैयार करने के लिए 381 करोड़ रुपये का बजट बनाया गया है जी पिछले साल से 12 करोड़ रुपैया ज्यादा है।लेकिन इतने खर्च पर भी खिलाडियों को मामूली सुविधा नही मिलती। हालाँकि इतना पैसा क्रिकेट की तुलना में कुछ भी नही है ? फिर भी इतने पैसो से खिलाडियों को बुनियादी सुविधा तो दी ही जा सकती है ?
खेलो के विकास के लिए सरकार ने स्वायत्य फेडरेशन बनाया है।इनकी देख रेख और खेल के सामान की आपूर्ति के लिए भारतीय प्राधिकरण नामक व्यवस्था रख दिया है लेकिन खुद ही सफेद हाथी बन गया। हर ओलम्पिक में हम चाहते है की खिलाड़ी पदको का भरमार करे, सोने चांदी के पदको से हमारी झोली भर जाय लेकिन उम्मीद पर सुविधाओं का वजन रखने में सरकारो का खोखलापन खुलकर सामने आ जाता है। सोचिये की भारत में खिलाड़ियों के चयन के लिए कोई अन्तर रास्ष्ट्रीय अकादमी नही है क्योंकि ट्रेनिंग के लिए भी कोई ढंग की व्यवस्था नही है ? खेल संघो में राजनीती से जुड़े लोगो का दबदबा है। बाकायदा रिसर्च हुई है इस बात पर की भारत ओलम्पिक में क्यों पिछड़ जाती है ? क्योंकि खेल ट्रेनिंग सुविधा के लिए पैसे चाहिए जैसा की चाइना और अमेरिका करते है लेकिन हम अपने खिलाडियों की बोझ समझते है और ऐसे में कोई पदक आ भी जाय तो इसे इत्तेफाक ही समझिये। बीमारी चाहे जितनी बड़ी हो वो लाइलाज नही होती नियत की वजह सारी बीमारियां बढ़ती चली जाती है।
No comments
Post a Comment